कैसी-कैसी बातें करता
किस उलझन में जीता-मरता
हाथ बढाकर चांद खुरचता
रंग सुनहले-ख्वाब वो गढ़ता।
सहर से मांग लूं किरणें थोड़ी
मिला पानी कुछ गूंथ लूं मिट्टी
फिर लेप चांद के दाग मिटा दूं
जितना खुरचा उतना लौटा दूं।
एक रोज कुछ भूल से उनसे
दे बातों में तूल कि उनसे
"तेरी आंखों से" - कह बैठा -
"सूरज जलता, चांद चमकता"।
फिर ऐसा है चांद से नज़रें
फेर के जाने वो बैठे हैं
ड़ाल हक़ीकत के परदे
ढ़क कर सहर को बैठे हैं।
"एक कच्चा-पक्का शायर
कुछ आखिरी सांसों का मोह्ताज़ है तबसे"
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