Monday, December 8, 2008

चंद शेर

निगाहों को कोई चीज यहाँ आशना न रही
गफलत है हमें, या शहर में वो फिजां न रही?
दिल से निकली हुई हर बात ने इतने मतलब देखे,
ज़बां को कुछ और कहने की तमन्ना न रही।



वीरानी सी गलियों में सुहाना कोई मंजर आए
कोई शाम तेरी जुल्फों से गुजरती फ़िर इधर आए
तेरे जाने से खो गए हैं शहर के सब ठिकाने
फ़िर किसी रस्ते से गुजरूँ कि तेरा घर आए।



मुकद्दर था कि ठहरे जरा दस्तूर था कि चल दिए
ये कारवां ए वक्त है ये जिंदगी के काफिले,
आदमी तेरी किस्मत कि ये फितरत बड़ी अजीब है
जो दास्ताँ ए वस्ल है, है हिज्र के ही वास्ते।




जिंदगी किसी मौज़ का बहता हुआ पानी है
यहाँ पर वक्त और हालात कुछ रोज़ में बदल जाते हैं,
इस ग़म को तुन पलेगा आख़िर कब तलक शायर?
सब रिश्ते, सब ज़ज्बात, कुछ रोज़ में बदल जाते हैं।

शाहकार

साँझ के ढलते हुए सूरज सी मद्धम
हौले मुस्कुरातीं
जैसे लाज ने बाँध रक्खी हो हँसी,
जैसे दिल में समेत रक्खा हो ग़म।
चेहरे पर छाई एक शायराना खामोशी
फितरत में शामिल
मुसव्विर की तन्हाई।
तौबा........
जिसने भी तराशी
बड़ी खूब तराशी,
उन नूरी निगाहों में
खुशरंग उदासी...........

नज़्म

मैं बड़ी उम्मीद से कहता हूँ कोई बात,
वो बड़ी बेदिली से अनसुना सा गुजार देती है।
जो गम मुझे जीने नहीं देते
अब उनके मायने नहीं उसको।
मेरे दर्द ख्याली पुलिंदे हैं
मेरी रूह कोई बेसबब सामान।
वो मेरा गुरुर थी जिसे आजकल ख़ुद उतार देती है।
मैं बड़ी शौक से अल्फाज़ पिरोता हूँ
वो बड़ी तसल्ली से नकार देती है।
अब अदने शायर की ख्वाहिश नहीं उसको भी,
वो, मेरी नज़्म-
आजकल वो भी मेरे दोस्तों सा बर्ताव करती है.............

Saturday, December 6, 2008

गज़लें

कोई भूली हुई बात, कहीं जमी हुई पीर हैं हम
ख्वाबों के पुलिंदे हैं दर्द की तासीर हैं हम

यूँ कैसे कह दें कि इतने नाकाबिल भी थे
आजकल ख़ुद अपनी धुंधली सी तस्वीर हैं हम

अब आंसुओं में साथ देने आओगे साथी?
कैसे मुस्कुरा के कहते थे तुम्हें भी अजीज हैं हम

यूँ कैसे मिटा दिया जहन--दिल से नाम मेरा?
गोया रेत पर खिंची कोई लकीर हैं हम

कई बार कहा कि ग़मों पे जब्त कर ले अब तो
जिंदगी! सच तेरी हसरतों से आजीज हैं हम








तेरा नाम, तेरी बातें, तेरे किस्से कुछ याद नहीं
हो गए हैं सारे चेहरे एक से, कुछ याद नहीं

रुसवाईयों की इस कदर आदत सी कब ये पड़ गयी?
इक दौर में हम भी कभी खुद्दार थे, कुछ याद नहीं

जख्म गिनते खो गया दर्द का एहसास तक
इस दिल पे किस किस के खंजर चुभे, कुछ याद नहीं

आजकल चौराहों पे हो गई है कितनी रौशनी!
अब भी मेरे घर में ठहरे हैं अंधेरे, कुछ याद नहीं

दोस्तों के घर चला तो अजनबी से लोग मिले
शायद मुझे अपने शहर के रास्ते कुछ याद नहीं।

एहसास किसके, बात किसकी, औ' उभरती शक्ल किसकी?
मेरी लिखावट में लिखीं गज़लें किसने कुछ याद नहीं।