Tuesday, December 11, 2012

गज़ल

बाद मुद्दत के इक खयाल फिर अपना लगा
जाने क्यों उदास होना भी आज अच्छा लगा।

ज़हन रु-ब-रु नाकामियों से परेशान होता था
दिल खामखा कुछ जिन्दा लगा, ताजा लगा।


तेरे एहसास की बारीकियाँ क्या समझा किए
जब टूट गया तब अनमोल तेरा वादा लगा।

तूने बख्शी है इक उम्र तसल्ली दिल को
बाद रूख्सत के कोइ नेमत तेरा आना लगा।

तूं 'अक्स' की इन गज़लों का मतलब न पूछ
तुझसे लगा, जब भी अशआर का मज़मा लगा।






  

Friday, November 16, 2012

ग़ज़ल


हमारे बस सफ़र से ही क़ायदे कुछ भंग होते हैं 
यहाँ पर हर कदम रस्ते जरा और तंग होते हैं। 

सियासी मसलों पे इस कदर न बेबाक हुआ कर 
दर्मयाँ अंधेरों-उजालों के यहाँ कई रंग होते हैं।

यहाँ सब फासले बस मंच की रवायतें भर हैं
हो नेपथ्य तो सब एक दूसरे के संग होते हैं। 

दरवाजों के सुरों से ही क्यूँ तूं बावरा है 'अक्स'
इस घर में दीवारों के भी अपने आहंग होते हैं। 

Friday, October 19, 2012

गज़ल

यूं बेकरारियां बज्मों में सरेआम सबसे कहा  न कर
तूं  तो मेरी अपनी है गज़ल, तूं  तो हमें रुस्वा न कर।

इस अंदाज पर सब तेरे कायल तो हो जाएंगे मगर
आ कहेंगे मुझसे फिर कि बातें तूं ऐसी किया न कर।

ये लोग कब समझेंगे भला तेरे दर्द की बारीकियाँ
रौशनी के पुतलों पे अपनी तारीकियाँ ज़ाया न कर।

जिसे भी ज़ख्म दिखाओ उसी को चारागरी का शौक नहीं
दुआ ही कर जालिम,  तूं बेशक भले दवा न कर।



Wednesday, September 26, 2012

गज़ल

अल्फाज़ जोड़ रखूं मगर, कुछ हाल-ए-दिल बयां तो हो
कहो तो फिर गज़ल कहूँ, पर कहूँ तो कुछ नया तो हो।

ज़हीन  तो  क्या  खाक  थे,  शायर  भी  अब कहाँ रहे
जो  महफिलों  में  हम कहें, जो कुछ न हो खरा तो हो।


हकीकतों  में तुम  तो  अब खबर हमारी लोगे क्या
इक ख्वाब छोड़ जाओ बस, साँसों को कुछ वजह तो हो।

ज़माने से तो लड़ भी लें, पर दोस्त तेरी खामशी?
खुशी से जो न मिल सको, कुछ रु-ब-रु गिला तो हो।

जिन्दगी तो 'अक्स' अब, बिगाड़ तेरा लेगी क्या
लुटे जो कुछ जमा भी हो, मिटे जो कुछ रहा तो हो।


Saturday, September 22, 2012

इजहार

बात पेचिदा है, नज्मों में कोइ कहे कब तक
वक्त से बंधा है, इश्क भी जिंदा  रहे कब तक
तवज्जो परछाइयों को हकिकत दे कब तक

रु-ब-रु गुफ्तगू हो तो अब करार आए।

आसमां पर कहीं उभरी सी तेरी तस्वीर रहे
औ' ज़मीं गेहुआं रंग की जैसे जागीर रहे
हवाओं में भी तेरी खुश्बू की ही तासीर रहे

हर तरफ तूं  ही तूं  हो तो अब बहार  आए।





Saturday, June 9, 2012

गज़ल

रात, किसी ख्वाब, कभी नशे में किसी मैखाने में मिलो
यूं भी क्या बात कि जब भी मिलो अफ़साने में मिलो.

इस मुफलिसी में ये महंगे ख्वाब आयेंगे कब तलक
अबके मिलो तो मुकम्मिल किसी ठिकाने पे मिलो.

है इक  उम्र से सिर्फ जमीं की जुस्तजू में हकीकत
और तुम कहते हो  सितारों के आशियाने में मिलो.

अब तो वादों से इरादों से बडा ऊब सा जाता है दिल
इत्तफाकन ही किसी चौराहे पे कभी अन्जाने से मिलो.  

Friday, May 25, 2012

न जुनूं -ए-इश्क़ ही, न सूफियाना एहतराम तेरा 
'अक्स' अब जमात-ए-शायर में कहाँ काम तेरा. 

ले दे के जो बचता है गम-ए-दौरां तो उसका क्या 
हर्फ़-हर्फ़ बेमतलब तेरे, है शेर-शेर नाकाम तेरा 

इबादत जो नहीं करता, मय से तो रिश्ता रख 
साकी से यारी है तेरी, न कायल है इमाम तेरा.

है हुनर शाहों का कि फकीरों का, क्या आए तुझे?
ज़हीनों में गिनती है, न बर्बादों में है नाम तेरा. 


Tuesday, April 17, 2012

गज़ल

ये मुकद्दर, ये हालात, यूं तंगहाल कहाँ जाएंगे 
न सिम्त ठिकाने, न रस्ते ही ख्याल, कहाँ जाएंगे.

कहो तो तुम्हारे दर पे माथा टेक आएँ हम भी
इस बार मेरे मौला जरा सम्भाल, कहाँ जाएंगे.

पिछ्ले ही बरस चौखट तक चला आया था पानी
क्या जाने बरसात में इस साल कहाँ जाएंगे.

इस फिक्रमंदी में वो अन्दाज-ए-बयां लाऊँ कैसे
चांद के ख्वाब से रोटी के सवाल कहाँ जाएंगे?

इस कशमकश से तूं अभी थका भी तो नहीं 'अक्स'
जब तलक है अपनी उम्र उठ्ने दे बवाल कहाँ जाएंगे.






Tuesday, April 10, 2012

गज़ल

गोया खोने लगी है असर तेरी हाला मेरे साकी
इस दामन में अब दर्द नहीं छुपता मेरे साकी.


सोचा था दोयम है, ये गज़ल छुपा ही रक्खूं
मगर होता नहीं जब्त गम-ए-दौरां मेरे साकी.

थक कर भी लड़खडाए तो बदनाम हो गए
क्या खूब निभा रही है हमसे दुनिया मेरे साकी.


दिल टूटने का सबब तक न पाला किए कभी 
यूं मिट रहे हैं हम भी खामखा मेरे साकी.











Friday, February 24, 2012

गज़ल

ये जो तेरे हर मोड़ पर जिंदा अफसाने मिल जाते हैं
दो कदम चल दो तो दो लोग पह्चाने मिल जाते हैं|

हैरां हूँ हर शै को है इतनी  पहचान मेरी कैसे
हैरां हूँ हर बात में कैसे अशआर पुराने मिल जाते हैं। 

है किसे शौक, जाए कौन इस आबो-हवा को छोड़ कर
क्या करुं इन्सां हूँ, कुछ रस्म निभाने मिल जाते हैं|

वो एक शहर है, तूं वहाँ खो ही तो जाएगा 'अक्स'
यहाँ तो अब भी हर सिम्त यारों के ठिकाने मिल जाते हैं।







Monday, February 20, 2012

गज़ल

जो कह ही चुके हैं सब बातें तमाम लिखते तो क्या लिखते
खामखा राह के पत्थर को मुकाम लिखते तो क्या लिखते।

यूं ठीक कि किसी रोज तो तेरे हाथ रुस्वा भी हुए हम
तूं फिर भी प्यादा है, तुझको निजाम लिखते तो क्या लिखते।

कल देख तो आए थे सियासत भी उसकी नुमायिश भी मगर
तोहमतें तो थीं हम पर भी  तमाम लिखते तो क्या लिखते।


यूं ठीक कहते हो गज़ल का एहसास भी छिन गया हमसे
दोपहर की छांव को मगर शाम लिखते तो क्या लिखते।

गुरुर हमको भी कम नहीं है अपनी अहमियत का 'अक्स'
फिर भी मजबूरियों को एह्तराम लिखते तो क्या लिखते।


Tuesday, January 10, 2012

गज़ल

हम  अब और नहीं वो, ऐ खल्क़त-ए-शहर हमें याद न कर
तुझे जिसका भरम है, कोई और था शायर हमें याद न कर.

इस खाक के दम पर क्या तुझसे अदावत भी करें हम
मिट ही जाने को हैं, अब और सितमगर हमें याद न कर.

कुतरे  हुए  पंखों से  क्यूं परवाज़  की  उम्मीद है साथी
बिखरे हुए इरादों से कहाँ होता है  सफर, हमें याद न कर.

तेरी बज्मों मे खामखा मेरा नाम उठे मुनासिब तो नहीं
तूं शम्मा-ए-शब् है, हम चिराग-ए-सहर हमें याद न कर.

वो और ज़माने थे कि बज्मों की रौनक था 'अक्स'
अब तो इस ज़ानिब फक़त दर्दों के हैं मंज़र, हमें याद न कर.