Wednesday, November 10, 2010

आवाम के नाम

इस कैद में ज़म्हुरियत अब और रह सकती नहीं
साँस ले कि ज़िन्दगी अब और सह सकती नहीं.


ले  देख  तेरे सब्र  का तो अब  यही अंजाम है 
मशहूर तेरी ख़ामोशी है,  तूं मगर बदनाम है 
जुल्म  हुआ है  सही  पर क्या करे आवाम है 
इस तरह तूं हो भले  महफूज़ पर गुमनाम है. 


अब और अपने दर्द पर तूं सब्र लिखना छोड़ दे 
इस घुटन में जीवटें अब और जी सकतीं नहीं.


क्या हुआ कि फिर अचानक भीड़ में तू खो गया
जख्म गहरा था मगर फिर आह भर चुप हो गया 
जागती आँखों  में तेरा  ख्वाब फिर से सो गया 
और वो कहते तेरा क्या हँस गया फिर रो गया.

इन ख्वाबों कि कैफियत तूं अब बदल भी दे जरा 
जलती हुई आँखों में ठन्डे ख्वाब पल सकते नहीं. 









Friday, November 5, 2010

ग़ज़ल

हसीं मौसम है, टूटते ख्वाब हैं, रुसवाई है
आज  फिर शाम  है, दर्द है,  तन्हाई है.


एक  जमीं  पैरों तले  से खोती  जाती है 
एक जमीं ख्वाबों ने  आश्मां पे बनाई है.


आज कुछ  लम्हा ज़िन्दगी  भुला दी मैंने
आज कुछ लम्हा  फिर याद  तेरी  आई है.

मुझे मालूम  है फिर मेरा  भरम ही होगा
देखूं तो किन्ही कदमों की आहट सी आई है

तूं  सच  ही  कहता रहा है  मेरे  दोस्त
अपनी आह फरेब, तेरा सितम भी मसीहाई है.