Thursday, January 20, 2011

ग़ज़ल

अपने ही घर में चीजें अनजानी सी पड़ गयी हैं
पुराना मकान है अब दरारें सी पड़ गयी हैं

अब और आह का सबब क्या बताएं हम
बात अब तुझको भी बतानी सी पड़ गयी है

रिश्तों पर जमी धूल देखी तो याद आया
कुछ रोज़ से कुछ चीजें पुरानी सी पड़ गयी हैं.

आजकल करीबी लोग भी साफ़ नहीं दिखते
खरोंच आई है, चश्मे पे निशानी सी पड़ गयी है.

Saturday, January 15, 2011

ग़ज़ल

कहाँ हैं अब, वो तुम, वो मैं, वो शाम वो किस्से
किन्हीं वजहों से सारे शहर में बदनाम वो किस्से

वो नुक्कड़ पे जमने वाली रोज़ की महफ़िलें
आवारगी का, गर्दिशों का अंजाम वो किस्से.

वो जाड़े की सुबह, वो अलाव, वो हिंदी अख़बार
चाय पे सियासत के चर्चों के नाम वो किस्से.

जिंदगी को देखने के नज़रिए ही बदल गए
न वो फुर्सत, न शुकूं, न सर-ए-आम वो किस्से.

Sunday, January 9, 2011

ग़ज़ल

बना के हसीं दर्द-ए-दिल नज्मों में उतारे थे कभी
इतनी खुशरंग थीं ये दिल कि दरारें भी कभी.

किसकी साजिश है कि पसरे हैं बेरूह अँधेरे
अपने सजदों में असर था कि उजाले थे कभी.

इतना नाआशना होकर भी न गुज़रो लोगों
इसी शहर में चर्चे थे हमारे भी कभी.

ठंडी राख को हकीकत समझ बैठे हो
जानोगे 'गर देखोगे जलने के नज़ारे भी कभी.