Sunday, December 18, 2011

गज़ल


हमारे लफ्जों में ढला है वो, खुदा की नेमत में नहीं 
हमारी आखों से बना है, आइने की सोह्बत में नहीं|

उसको यकिनन खुदा ने फुर्सत में तराशा होगा
हम भी खुदा के इरादों में ढले हैं, गर फुर्सत में नहीं|

यूं उसके गुरुर के कायल तो हम भी हैं मगर 
शोख अदाओं में है बात, दर्मयाँ सियासत में नहीं|

वो किसी रोज तो तुझे फरिश्ता भी कह देंगे 'अक्स'
रोजमर्रा की ये बात मगर फिर भी कयामत में नहीं|

Wednesday, December 14, 2011

गज़ल

जो कुछ नहीं है जिन्दगी में, ये फुसूं भी है
जरा नाकामियों से फिक्र है, जरा शुकूं भी है|

आवरगी बढ़ गई कुछ इस कदर कि आजकल
हंसी को ये खबर नहीं, अश्क रु-ब-रु भी है|

जब भी पी के कह गए, लोग हंस के रह गए
बदनाम आदतें हैं जो, अपनी आबरू भी हैं|

अपनी आदतों से वो खफा-खफा सा है मगर
उससे तल्खियाँ हैं, वो मुझसा हु-ब-हू भी है|

करते परवा तो कबके खाक हो जाते 'अक्स'
मिटे जहाँ-जहाँ सफर, तखलीक जुस्तजू भी है|



Monday, December 12, 2011

गज़ल

कौन सही है, कौन गलत, क्या-क्या बातें कर जाते हो
इतनी गफलत में तुम जाने कैसे जिन्दा रह जाते हो|

हम मुफ़लिस, बेज़ुबां, हमें तो खुद अपना मालूम नहीं
हमारी  बातें  इतने  यकीं  से तुम कैसे कह जाते हो?

हमसे पूछो, गर्द उड़ी थी, चमकती थी धूप की किरनों में
तुम उसको हर शै सुनहली, अपनी ज़ानिब कह जाते हो|











Sunday, November 20, 2011

चन्द आवारा खयाल

दिल्ली की किसी सर्द सुबह
लोग जगने को हों
धुन्धलका छाने को हो
तेरा हाथ थामे दूर निकाल जाऊँ
सूनी सड्कों पर इक्का-दुक्का लोगों के दर्मियाँ
किसी टी-स्टाल पर जो खुला ही हो
गर्म चाय की प्याली हाथ में ले
भट्टी से निकलते धुएँ से पूछूं
"बता किसका रंग ज्यादा साफ है?"

किसी तपती दोपहर के बाद
जब शाम ढलने को हो
सरस्वती घाट (इलाहाबाद) से किसी बोट पर चलें
संगम के बिल्कुल पास जब सूरज पानी में डूबने को हो
यमुना के पानी पर उन्गली से तेरा नाम लिखूं
किसी रोज समंदर को पता तो चले
नम्कीं किसको कहते हैं...

अपने शहर के चौराहे पर
जहाँ एक तरफ मस्जिद है, दूसरी तरफ मन्दिर
आजकल बडी भीड़ होती है वहाँ,
वहीं थोडी दूर वो गोलगप्पे वाला
अब जरा बूढा हो चला है
वो बचपन वाली बात नहीं रही उसमें
वहीं किसी रोज तुम मिल जाओ अचानक,
देखूँ बात गोलगप्पों में थी या तुम्हारे साथ में..


Wednesday, November 16, 2011

गज़ल

ये चमन, फिजा, दिन-रात, ये शाम-सबेरा कोई नहीं 
आशना हैं सब मगर इस शहर में तेरा कोई नहीं 

इसी रस्ते से हर रात गुजरता है बना वो बन्जारा 
चांद कि खातिर आसमान पर रैन-बसेरा कोई नहीं

जाने मेरी हर महफिल में नाम तेरा आ ही जाता है 
इन नज्मों में कई बरसों से ज़िक्र तो तेरा कोई नहीं









Friday, November 11, 2011

गज़ल

ये बेपनाह आवारगी कभी खल जाती है तो गज़ल कह्ता हूँ
शौक ही शौक में जान पे बन आती  है तो  गज़ल  कह्ता हूँ.

वो जिसे होश कहते हैं, मशरूफ जिन्दगी की बेहोशियाँ हैं
फुर्सत जो कभी  मैकदे में लाती है तो गज़ल कह्ता हूँ .

वो जो मैं था, हो के खाक बिखर गया था तेरे शहर में
हवा ये तुझसे  आखिरी रब्त भी उड़ाती है तो गज़ल कह्ता हूँ

दर्द एक ख्याल है, 'शायरी' कोई शौक का सामां तुझको
तूं न समझेगा, आह कोई दब जाती है तो गज़ल कह्ता हूँ.






Friday, November 4, 2011

गज़ल

पूछ्ता है कि मेरी राहों में क्यूं  मैकदा ही नहीं होता 
साकी समझता नहीं अब हमें  नशा भी नहीं होता.

होश फख्ता हैं जिन्दगी से ही कुछ इस कदर
वो होश गुम होने का अब वाकया भी नहीं होता 

किसी अपने से शौक से दो बात  कर लें कभी 
आजकल  फुर्सतों का इतना दायरा भी नहीं होता. 

हमने कुछ शौक से पाली हैं ये खामोशियाँ 
यूं कह जाने से दर्द कुछ हल्का भी नहीं होता.

हमसे अब और हुनर की उम्मीद न पाल 'अक्स'
हाल-ए-दिल और लफ्ज़ों मे तर्जुमां भी नहीं होता








Monday, October 31, 2011

बोल कि लब आजाद हैं तेरे

ये खामशी उनका खौफ़ नहीं 
तेरी इन्सानियत है..
तूं कि जिसकी चुप्पी के चर्चे हैं आजकल 
तूं मजबूर नहीं है, ज़हीन है 
यूं तेरी आवाज से सिंहासन अब भी हिल जाएंगे 
ये मुल्क उनकी मिल्कियत नहीं 
अब भी तेरी जम्हूरियत है
बोल कि आखिरी बात तेरी है 
तेरे हैं अन्तिम फैसले 
बोल जुबां अब तक तेरी है 
बोल कि लब आजाद हैं तेरे..

*'फैज़' कि नज़्म 'बोल' से प्रेरित 


Sunday, September 11, 2011

गज़ल

आवारा लफ्जों को फुसलाने, नज्में बनाने वाले
अब कहाँ लोग वो,  दर्दों  के  नाज  उठाने वाले 

दिल की सतहों उठती है, जो बात बयां होती है
सबकी नजरों छुपा रक्खे हैं वो दर्द पुराने वाले

नब्ज़ देखी है, अभी जिन्दा हूँ, धडकनें बाकी हैं
रुक के सजदे क्यूं करते हैं यूं मशरुफ ज़माने वाले

शौक अच्छा है, तुम भी सिख गए वादों का हुनर 
यूं इस बज्म मे आते हैं सब लौट के जाने वाले

जी में आया तो खुश्क मौसम से कारिगरी कर ली
मुझसे ही नकली हैं ये फूल इस डाल पे आने वाले.

Sunday, September 4, 2011

क्या आप कांग्रेसी हो?


एक साहब स्वभाव से थोड़े रुखड़े थे 
सुबह-सुबह अपने बकरे पर उखड़े थे..
मैने पूछा - "क्या हुआ?"
वो बोले - "क्या बताएँ साहब!
चार महीने से सीखा रहा हूँ
पूरा मुंह खोल - मैडम-मैडम बोल.
मुंह  पूरा खोलता ही नहीं 
मैं-मैं बोलता है, 'डम' बोलता ही नहीं!"
मैने कहा - "देशी है, हिन्दी बोलता है, अंग्रेजी क्यूं सिखलाते हो?"
वो बोले - " क्या फरक पड़ता है देशी हो, विदेशी हो?"
मैने पूछा - "क्या आप कांग्रेसी हो?"

एक साहब साहब सुबह-सुबह चिल्ला रहे थे
पानी न आने की वजह से झल्ला रहे थे
इसके पीछे आर एस एस का हाथ बतला रहे थे 
मैने कहा - "भाई ऐसे कामों मे साथ तो आपका ही होता है,
मुद्दा जो भी हो आमतौर पर 'हाथ' तो आपका ही होता है." 
साहब भडक कर बोले - "तुम कौन हो?
सी बी आइ लगवा दूंगा, बोलते कुछ बेसी हो"
मैने पुछा - "क्या आप कांग्रेसी हो?"

Sunday, August 14, 2011

गज़ल

फिर वही जलसे, वो हुज़ूम, वही हाकिमों के करतब हैं
हम फिर कुछ और नाचीज़, वो कुछ और हमारे रब हैं

खुद  को  इंसाँ  कहते है तो  जीभ  कट  सी  जाती है
हमारे  चूल्हों  के  मुद्दे  भी  उनकी दावतों के सबब हैं

हमसे और हाल-ए-जम्हुरियत न पूछ मेरे दोस्त 
दिल्ली  में  होते  आजकल  बस  गूंगे  तलब  हैं



Thursday, July 21, 2011

गज़ल

कोई उससे पूछे वो क्या चाह्ता है 
करके इतने सितम भी दुआ चाह्ता है.

मिटा दे वो हस्ती उफ भी न करें हम 
वो बेशर्त ऐसी वफा चाह्ता है.

तमाम जिस्म उसके जख्मों से छलनी
चारागर है, घायल से दवा चाह्ता है.

बददुआ भी दें तो किस तरह दें उसे  
सजदे किए थे कि खुदा हुआ चाह्ता है. 

ये दिल और दर्दों के कबिल नहीं अब 
जरा  आह भर के मिटा चाह्ता है. 

Friday, July 8, 2011

गज़ल

ये जो गफलतों के दरम्याँ कुछ नया- नया सा है 
ये क्या है जो कदमों तले कुछ आशमां सा है?  

ये जो मेरे साथ तूं है, जैसे कि देजा-वू है 
जो हो रहा है अब, जरा हुआ-हुआ सा है.

जो सोचता हूं, जैसे पहले हो चुका सा हो 
जो कह रहा हूँ सब जरा बयां-बयां सा है.

ये सब तेरा कमाल है या मेरा ख्याल है 
कुछ तो है कि बिन पिए नशा-नशा सा है.

गूंजते है फिजा में सजदे किसके नाम के 
असर है मेरे इल्म का कि तूं खुदा सा है?

Friday, July 1, 2011

गज़ल

तन्हाईयों का ज़हर है, जो अब जिन्दगी देता है 
अब हिज्र शुकूं देता है औ' दर्द खुशी देता है.

तेरे जाने की यादों का असर भी अजीब है 
इक उम्र रुलाया है, कुछ रोज से तसल्ली देता है. 

फिक्र-ओ-अरमां में कुछ इस कदर घुट गए थे
बर्बादियों का मंज़र भी अब संजीदगी देता है.

तेरे जहीन पेशों के कहाँ काबिल थे हम
ये हुनर अच्छा है, जरा आवारगी देता है.















Wednesday, June 29, 2011

गज़ल

थामे  हुए  हाथों  में  हाथ  चले  फिर 
कभी यूं हो कि तूं मेरे साथ चले फिर. 

चन्द किस्से जो बचपन में अधूरे रह गए 
साथ बैठें तो  पुरानी  वही  बात  चले फिर. 

इस इल्म, इस  मस्लहत से निजात दे दे 
आ वही नासमझी, वो जज्बात चले फिर.  

इस  झूठी  हंसी  के   सदके  सदियाँ गुजर गयीं
दिल में वही दर्द, आंखों से वो बरसात चले फिर. 









Monday, June 6, 2011

गज़ल

आह से उपजेगी आग तो तख्त-ओ-ताज भी जला करेंगे अब 
सांस थामो  कि  हुक्मरानों के  अन्दाज  भी  जला  करेंगे अब. 

आवाम की फितरत को इस कदर शर्मिंदा भी न कर जालिम
इन्ही   दियों  से  तूफानों  के मिजाज़  भी  जला  करेंगे  अब.

रूहों की  कीमत पर  आसमानों  के सौदे न कर कह देता हूँ
कुछ पंख भी कुतरे जाएंगे, कुछ परवाज़ भी  जला करेंगे अब.

तेरे इशारों पे खौफ खाने, बदल जाने वाले मौसम भी गए 
इन  बादलों  की  गरज़  से  तेरे  साज  भी जला करेंगे अब.





Wednesday, June 1, 2011

गज़ल

आजकल रु-ब-रु बारहा ये सवाल आता है 
ये गुमनामियों से हमें कौन बेज़ा निकाल आता है.

हर बार कसम देकर हालात कह देता हूँ उससे 
वो हर बार सर-ए-बजार मेरे चर्चे उछाल आता है.

कल महफिल से मेरा जाना भी अब याद नहीं 
ये साफ मुकर जाना भी उसको कमाल आता है.

रोज किसी अपने के गम में पी जाता हूँ 
रोज कोई अजनबी रस्ते से सम्भाल लाता है 

आजकल बुजदिली का ये आलम है 'अक्स'
दिल को सहम-सहम कर उसका भी ख्याल आता है.  


Wednesday, May 18, 2011

हजारों ख्वाहिशें ऐसी....

हजारों ख्वाहिशें ऐसी..

एक शख्श से लिपटी हुई कई शख्सियतें
एक पोटली में बाँधी हुई कितनी नाकाम हस्रतें
कुछ रूह की चाहत, कुछ उम्र के तकाजे..
यकीनन टूट कर बिखर जाने, न मिलने वाली
हजारों ख्वाहिशें ऐसी..

मौजों में बलखातीं
किनारों से टकरातीं, बिखर जातीं
धड्कनों में आवाज पातीं
सासों मे घुल खामोश खो जातीं 
हजारों ख्वाहिशें ऐसी...

ये आम और खास के फर्क
ये दिल के ज़ज्बे, ये पेट के मुद्दे 
ये ज़र्द होते चेहरे की हंसी में कभी-कभी मिलने वाले 
कभी न पूरे होने वाले इरादों की
हजारों ख्वाहिशें ऐसी..

किसी गालिब के खयालों में जन्म पातीं
किसी जालिम दुनिया के इशारों से 
खौफ खातीं, सहम जातीं 
हजारों ख्वाहिशें ऐसी....


Wednesday, April 20, 2011

गज़ल

जिन्दगी तेरा काफिला हमें 
ये ले के आया है कहाँ हमें.

क्यूं जल रही हैं ये बस्तियाँ 
क्यूं डरा रहा है  धुआं हमें.  

ये वक्त कैसे रुक गया 
जरा हाथ थाम औ' चला हमें 

अब झूठ-मूठ दिलासे न दे 
हो चला है सबकुछ पता हमें.

आखिर में वो भी कह गया 
"न पुकारा करो खुदा हमें"

रहने दो अपनी पहचान गुम
यहाँ रहने दो नाआशना हमें 




Sunday, April 17, 2011

गज़ल

एक  दुनिया  है कि  ख्वाबों मे  जवां  होती है 
एक हकीकत है जो मुश्किल से बयां होती है . 

वो जो  कहते हैं कि शायर है, बडा कबिल है 
दिल-ए-नाशाद को ये  तारीफ सजा होती है. 

तेरी दुनिया के तरीके सीखें भी कहाँ से साकी 
तेरी बज्मों में बस अमीरों से वफा होती है.

दिल तो नादां है, उड़ने की ख्वाहिश करता है 
खौफ होता है कि ज़मीं पैरों से जुदा होती है.

हसरतों के पाँव छिल गए दर-ब-दर फिरते
इस शहर मे सुना था गरीबी की दवा होती है. 








Thursday, March 17, 2011

गज़ल

सुनेंगे फसाने तो इश्क का अन्जाम भी मांगेंगे
लोग  मेरी  नज्मों  से  तेरा  नाम  भी  मांगेंगे. 

कहते तो हो कुछ और हसीं गज़लें भी लिखूं
उन जुल्फों की बात उठी तो वो शाम भी मांगेंगे.

लड़खडा के गुजरुंगा अपने शहर से कभी फिर 
दोस्त पुराने, मेरे नशे से तेरा जाम भी मांगेंगे.

जुड़ा तेरे नाम से किसी का नाम भी तो होगा 
सुनने  वाले  पुरानी तेरी पहचान भी मांगेंगे.

तेरे ख्यालों पे भी हक अब जताउं तो कैसे
हिसाब तो लोग महफिल में सरेआम भी मांगेंगे.   


Tuesday, March 8, 2011

गज़ल

आजकल क्या  है  कि बात  कुछ बताई नहीं जाती
लब पे आती है जो आह, लफ्जों में लाई नहीं जाती.

कल तलक हुनर मे ढाला हुआ इक शौक था दर्द 
अब  ये  आदत  कुछ  हमसे निभाई नहीं जाती.

लग गया है होश किसी बददुआ की तरह साकी 
जाम की ओट में भी इल्म की परछाई नहीं जाती.

हर शै तेरा असर भी खोता जाता है लम्हा-लम्हा 
तेरे कूचे से गुजर कर भी अब तन्हाई नहीं जाती.

ये  गुरुर,  ये  रुतबा,  ये  ठेंगे  पे  मुकद्दर 
आलम-ए-गर्दिश में भी ये जौक-ए-खुदाई नहीं जाती.  









Monday, February 28, 2011

गीत

सुन मन्द-मन्द उठता है राग 
हकीकत मे जैसे घुल जाए ख्वाब
अब किस जोगी का तोडे विराग 
तेरा शृंगार!

कितना अहं, कितनी है साख 
हैं मौन छंद, कविता आवाक
किसको न तेज से कर जाए राख 
तेरा शृंगार!

जो खुले केश तो उठे बयार
जो उठें पलकें छा जाए बहार
जाने किसके अब जगाए भाग 
तेरा शृंगार!   


Monday, February 21, 2011

गज़ल


चंद  लम्हों  को  यूं  खो  तो गए हैं हम 
कौन कह्ता है इस शहर में नए हैं हम.


छिले हुए घुटने और लिपटी हुई मिट्टी
मुद्दत से गर्दिशों के लाडले हैं हम 

कितनी थकी हारी शामें भी याद  हैं 
कितनी सुबहों को फिर चल पडे हैं हम 

हमें मिट जाने का खौफ न दो दुनिया 
खाक की सोह्बत में तो पले हैं हम 

अपनी तह्जीब कि नजरें झुका रक्खी हरदम  
यूं  जालीम  तुझसे  कब  डरे  हैं हम 






Thursday, January 20, 2011

ग़ज़ल

अपने ही घर में चीजें अनजानी सी पड़ गयी हैं
पुराना मकान है अब दरारें सी पड़ गयी हैं

अब और आह का सबब क्या बताएं हम
बात अब तुझको भी बतानी सी पड़ गयी है

रिश्तों पर जमी धूल देखी तो याद आया
कुछ रोज़ से कुछ चीजें पुरानी सी पड़ गयी हैं.

आजकल करीबी लोग भी साफ़ नहीं दिखते
खरोंच आई है, चश्मे पे निशानी सी पड़ गयी है.

Saturday, January 15, 2011

ग़ज़ल

कहाँ हैं अब, वो तुम, वो मैं, वो शाम वो किस्से
किन्हीं वजहों से सारे शहर में बदनाम वो किस्से

वो नुक्कड़ पे जमने वाली रोज़ की महफ़िलें
आवारगी का, गर्दिशों का अंजाम वो किस्से.

वो जाड़े की सुबह, वो अलाव, वो हिंदी अख़बार
चाय पे सियासत के चर्चों के नाम वो किस्से.

जिंदगी को देखने के नज़रिए ही बदल गए
न वो फुर्सत, न शुकूं, न सर-ए-आम वो किस्से.

Sunday, January 9, 2011

ग़ज़ल

बना के हसीं दर्द-ए-दिल नज्मों में उतारे थे कभी
इतनी खुशरंग थीं ये दिल कि दरारें भी कभी.

किसकी साजिश है कि पसरे हैं बेरूह अँधेरे
अपने सजदों में असर था कि उजाले थे कभी.

इतना नाआशना होकर भी न गुज़रो लोगों
इसी शहर में चर्चे थे हमारे भी कभी.

ठंडी राख को हकीकत समझ बैठे हो
जानोगे 'गर देखोगे जलने के नज़ारे भी कभी.