Monday, January 12, 2015

बेखयाली

पूछोगी नहीं -
एक बार?
नज़र उठा देखा भी नहीं,
आंखें ही रोशन करतीं
सुबह तो होगी नहीं!

यही कि दिन तो न होने को था;
अब तक की रात काटी कैसे?
अंधेरे तो सांसों में हैं,
सियाहियाँ ख्याल बुनती थीं,
सिरफिरी उम्मिदों ने
बात काटी कैसे?

बस इतना कहना था
कि आशआर अब भी आते हैं -
उन्हीं तारीकियों के दर्मियाँ -
हाथ लागाता हूँ
तो हाथ लग भी जाते हैं,
बस रुकते नहीं -
तुम्हारी यादों के मानिंद -
आते हैं, चले जाते हैं।