Sunday, June 30, 2013

शायर की मौत

कैसी-कैसी बातें करता 
किस उलझन में जीता-मरता
हाथ बढाकर चांद खुरचता 
रंग सुनहले-ख्वाब वो गढ़ता। 

सहर से मांग लूं किरणें थोड़ी 
मिला पानी कुछ गूंथ लूं मिट्टी 
फिर लेप चांद के दाग मिटा दूं
जितना खुरचा उतना लौटा दूं। 

एक रोज कुछ भूल से उनसे 
दे बातों में तूल कि उनसे 
"तेरी आंखों से" - कह बैठा -
"सूरज जलता, चांद चमकता"। 

फिर ऐसा है चांद से नज़रें 
फेर के जाने वो बैठे हैं 
ड़ाल हक़ीकत के परदे 
ढ़क कर सहर को बैठे हैं। 

"एक कच्चा-पक्का शायर
कुछ आखिरी सांसों का मोह्ताज़ है तबसे"  


Thursday, June 13, 2013

गज़ल

अबके शायर को जरा जिंदगी की दवा दे मौला
हां ठीक कह्ता हूं अब ये हस्ती ही मिटा दे मौला।

रेशा-रेशा जल रहे हैं जान-ओ-दिल कब से कहूँ
ये खामखा की लौ - दे फूंक अब बुझा दे मौला।

ये जलती हुई आंखें, ये कश्मकश, ये ख्वाब न दे
अबके रात ढले तो गहरी नींद बस सुला दे मौला।

अब ये नज्में औ' न गज़लें औ' न ये जज्बात ही
अबके जिन्दा रख हमें तो दिल भी दुनिया सा दे मौला। 

Sunday, June 9, 2013

एक पुराना एहसास

इक ख्वाब जैसा फिर कोइ आने को है ....

जैसे खिड़कियों पर जाले लगे हों
धुआंधार बारिश से सहेजी हुई कुछ बूंदें
टिप-टिप टपकती हों,
और उनसे भी परे
कुछ झाड़ियां, कुछ अलसाए हुए बुढ़े से मकान
और एक बेतरतीब भीगा हुआ शहर;
सब एक धुन्धली तस्वीर के मानिंद आंखों के आगे पसरे हों।

और ये नादान मासूम आंखें
जाने कौन सी खूबसुरती तलाश लेंगी उनमें।

फिर ख्वाब टूटेगा,
अश्कों से बोझिल आंखें
चंद धुन्धली सी दिखती चीजों में पुराने एहसास तलाश
थक के सो जएँगी फिर।

हमने मासूमियत नहीं खोई
हमारा शहर खो गया है कहीं।