Wednesday, October 8, 2014

ग़ज़ल

नुक्कड़-नुक्कड़, जलसे-जलसे यूं ही आते-जाते अक्सर
जाने कब कैसे आती हैं, किन बातों से वो बातें अक्सर।

सर्दी की सुबहों पर जब-जब फूंकों से बादल बुनता था
दिन ढ़लता था, फिर होती थीं आंखों से बरसातें अक्सर।

सोचा था मुद्दत बात मिलोगे, हैरां होगे, हाल तो लोगे
फिर सोचा कब पूरी होती हैं असल में सोची बातें अक्सर।

इन सूती धागों से अब सब जीवन की कडियाँ जोड़ तो लें
पर याद आती हैं ख्वाबों में रेशम की मुलाकातें अक्सर।

कुछ धुंधले अल्फाज़ कभी तो याद तुम्हें भी आयेंगे
बीते पर जानी जाती हैं सब शायर की सौगातें अक्सर। 




Saturday, September 13, 2014

गज़ल

ये खामोशियाँ कहे हैं, कोई तो बात हुई होगी
हक़ीक़त से कहीं हल्की सी मुलाकात हुई होगी।

अन्धेरों ही में पला है, उसे ड़रते तो नहीं देखा
चुपके से दिन ढ़ला होगा, चुपके रात हुई होगी।

कितने गहरे-गहरे ख्वाबों के दरख्त उजड़ गए
बड़ी जोर का तूफां था, बड़ी बरसात हुई होगी।

"या ऱब ज़माना मुझको मिटाता है किस लिए?"
ग़ालिब यही किस्सा तेरी भी हयात हुई होगी।

Wednesday, September 3, 2014

इश्क

अजीब इश्क है -
अपने शायर ही की तरह
रोटी से ख्वाब के निवाले लेता है,
तो जी लेता है। 




Monday, August 25, 2014

बेनाम

अब वो हुनर नहीं बाकी
कि तेरा नाम लूं औ' गज़ल हो जाए।

अब वो तूं भी नहीं, तेरा जुनूं भी नहीं
कि आंखों में नींद न हो
औ' ख्वाबों को बन्दिशें भी नहीं।

अब वो तसब्बुर भी नहीं
कि कायनात के दूसरे छोर से
तेरे मन-माफ़िक मेटाफ़र ढूंढ़ लाऊँ।

हां मगर बयां बाकी है -
तो तेरी खुश्बू में गुंथे कुछ खुरदरे ख्याल
जर्रे-जर्रे में बिखेर आया हूं।

कभी खुद को भूल पाने शिद्दत हो
या उड़ सकने के हौसले जुटा पाओ
तो सबसे अन्जान शै से अपना नाम पूछ लेना।

तूं एक शायर का बिछ्ड़ा हुआ इश्क़ है
कुछ सदियाँ तो नाम के सज़्दे होंगे।

Saturday, April 19, 2014

गज़ल

कुछ वस्ल में बातें न हुईं, कभी हिज़्र के लम्हे न हुए
अजीब इश्क़ था मेरा - यादों को भी किस्से न हुए।

वो इंतेहा-ए-इश्क कि रग-रग में घुल गई इबादत
वो जुनूं-ए-यार कि कभी ख़ुदा के भी सिज्दे न हुए।

बारहा दामन से लगे तो रहे, वो क्या थे, कि न थे?
वो यादें जो तेरी न गयीं, वो ख्वाब जो मेरे न हुए।

और कैसे ख्वाब? तुम्हारी परछायिंओं से बुनते गए
न परछायिंओं को शामें, ख्वाबों के भी सवेरे न हुए।


Friday, January 3, 2014

नज़्म

सोच के एक सिरे को पकड़ा,
सोचा इक ख्याल बुनूं -
जरा हल्के रंग का,
फिर जरा गाढ़े रंग का,
और फिर किसी और रंग का,
ऐसे दस बारह रंग-बिरंगे ख्याल जमा हों
तो उन्हें जोड़  इक नज़्म बनाउं -
कुछ तुम्हारी कैफ़ियत की मानिंद।

मगर इन सूती सोचों में तो गांठें पड़ती हैं,
ज़हन बेतरतीब ख्यालों में उलझ जाता है,
इन्हें जोडूं तो तो शायद खादी की कोई नज़्म बने -
हक़ीकत की तरह खुरदरी, बेरंग।

तुम यूं करो न!
जरा हाथ फेर दो इनपर
सब सोच के धागे रेशमी हो जाएँ,
सब ख्याल रंग-बिरंगे -
रेशम में सुना है गांठें नहीं पड़तीं,
औ' मेरी कारिगरी में जो कमी रहे
तुम्हारे रंगों में छुप जाए शायद!