Friday, December 18, 2009
तुम अगर आओ कभी....
नैनों में वो दीप्त छवि
बसा ही लूँ, जाने न दूँ
तुम अगर आओ कभी।
आ जाएँ मृत वीणा में प्राण
जो छेड़े बांसुरी कोई और तान
गाने न दूँ
तुम अगर गाओ कभी।
सांवरी...
जलते दिवस की छाँव री
मैं नील गगन पर कोई और रंग आने न दूँ
तुम जो मेघा बन छाओ कभी।
तुम अगर आओ कभी............
Friday, December 11, 2009
ग़ज़ल
कोई किस्से अब नहीं, अब हैं बस तनहाइयाँ।
कल तलक तो जल रहे थे दिन के सफर में पाँव
शाम पर भी पड़ गयीं अब धूप की परछाईयाँ।
मतलब की है दुनिया, रिश्ते नहीं सियासत थे सब
दो पल में ही बतला गयीं सब वक्त की सरगोशियाँ।
दोस्त! हमीं तेरे वक्त को मुनासिब न थे
चल अच्छी ही लगीं सब हमको तेरी रुस्वाइयाँ ।
Wednesday, December 9, 2009
बस इतना कि ....
दुनिया को कभी देखो...
"मीलों तक मेले हैं
मेलों में सहरा है
कितनी आवाजें हैं
चुप्पी का पहरा है। "
अब अल्फाज़ नही जुडते
ख्याल चूक गए हैं,
बातें हलक तक आ के सहम गई हैं.....
जाने किसको नाराज़ कर दें....
बस इतना कि
"ज़ख्म दिल पे लगे हैं
ख्यालों पे नहीं,
दर्द कोई शौक नहीं....
उदासी आदत भी नही..."
Monday, October 26, 2009
ग़ज़ल
सुबह की धूप पर लिख दी तूने शाम क्यूँ मौला?
तिनका-तिनका उड़ा गयीं सब ख्वाब सारे आशियाँ
अपनी ही हवाएं हो गयीं अंजान क्यूँ मौला?
हँसते-हँसते रो गए तो बात सारी खो गई
कहकहों को सिसकियों का अंजाम क्यूँ मौला?
अब तो आने थे फिजाओं में बहारों के ज़माने
अभी ये गुलशन को पतझड़ इनाम क्यूँ मौला?
Friday, October 16, 2009
चिराग
याद आए हैं तेरी आँखों के वो रौशन चिराग।
देख पल भर में ये आँखें नम सी कुछ पड़ जाएँगी
फ़िर दीयों की रौशनी मद्धम सी कुछ पड़ जायेगी
अब ये लौ की फडफडाहट गा भला क्या पायेगी
उठती झुकती पुतलियों के याद आए हैं वो राग।
जो तेरी गलियों में कटीं शामें मेरी कुछ बात थी
तेरी आंखों से थी रौशन जिंदगी कुछ बात थी
वो पटाखे, रौशनी, वो फुलझडी कुछ बात थी
फ़िर याद आए हैं पटाखों से जलाये थे जो हाथ।
याद आए हैं तेरी आंखों के वो रौशन चिराग।
Sunday, October 11, 2009
गुजरे ज़माने
आहों का असर है न अश्कों के ठिकाने
कहाँ हैं -कहाँ हैं वो गुजरे ज़माने ....
राहों पे जिनकी चली जिंदगी है
बातों पे जिनकी ढली जिंदगी है
अरसा हुआ है कि वो भी नहीं हैं
कि जिनसे निभाया, न आए निभाने।
इक उम्र गुजरी तेरे साथ आते
इक उम्र गुजरी ये रिश्ता निभाते
तुमसे तो जोड़े थे रूहों के नाते
तुम्हें भी तो अब हम पड़े हैं पुराने।
न आजमाओ साथी कि हुए अब ज़माने
कहाँ हैं- कहाँ हैं वो गुजरे ज़माने ।
Saturday, September 19, 2009
ग़ज़ल
वो आजकल स्याही में आंसू मिला के लिखता है।
अपनों से गैरों सा बर्ताव तो कोई बात नहीं
वो आजकल रुसवाइयों पे खुदा के लिखता है।
लफ्ज़ उठते हैं अक्सर जब सूख जाती हैं आँखें
और वो कहते हैं गम में मुस्कुरा के लिखता है।
कल तलक महसूस करता था फिज़ाओं में दर्द
अब सूरत-ए-हाल पे गज़लें बना के लिखता है।
Sunday, September 6, 2009
इक ग़ज़ल तेरे नाम.....
हम भी यूँ बैठे-बैठे क्या अजीब बात करते हैं
तुम तो सब भूल गए, हम हैं सब याद करते हैं।
किसी रोज़ किसी लम्हा कहीं छूट गए थे तुम
अब भी उसी लम्हे से ख़ुद को बेकरार करते हैं।
तुम भी तो तुम न रहे ज़माने की भीड़ में
ये हम तेरी राहों पे किसका इंतज़ार करते हैं?
कभी कहा था तुमसे कि एक तुम्ही हो मेरे दोस्त
आज जब तुम ही नहीं क्यूँ सब से ये बात कहते हैं?
Sunday, August 16, 2009
कभी.....
यूँ बिखरी भी हैं जुल्फें हवा के झोंके से कभी
हमने देखी है सहर शाम के झरोखे से कभी।
तेरे आने की आस लेकर गुजरे हैं कई ज़माने
इस जानिब भी आ जाओ बिना आहट के धोखे से कभी।
ये उदासी न पूछ बैठे कि उसके सिवा भी क्या है
ये दर्द-ए-दिल भी जाने कि तुम भी होते थे कभी।
Thursday, July 30, 2009
भूली हुई यादें.....
वादे तो टूट गए, रिश्ता है टूटता ही नहीं
जो हमें छोड़ गया, हमसे छूटता ही नहीं।
लब तरसते हैं अदद इक नाम की खातिर
अपने पाले में अब तूँ भी नहीं, खुदा भी नहीं।
इन गलियों से पूछो मेरे घर तक ले जाएँगी हमें?
घर जो याद आता भी नहीं, घर जो कभी भुला भी नहीं।
देख पाता तो नहीं, दोस्तों के कहकहे सुनाई देते हैं
शहर यूँ पराया तो नहीं, अब आशना भी नहीं।
कोई बता दे, क्या अब भी शाम आती है यहाँ?
यूँ मुद्दत से तेरी जुल्फों का साया भी नहीं।
Wednesday, June 17, 2009
रिश्ता
इतनी साधारण रुनझुन में
बात थी क्या
कि होश रहे गुम?
तेरी पायल से क्या रिश्ता है भावों का?
किसी रोज़ मेरी उलझन सुलझा दे...
कितनी साधारण बातें!
उनमें क्या मुद्दे थे
इतनी भी चिंतन के?
तेरी बातों से क्या रिश्ता है दर्शन का?
किसी रोज़ जरा ये राज़ बता दे...
आंसू जो जमे
आँखें पत्थर सी हो चली हैं जानम
एक से दिन रात
जैसे सारे खो गए हों मौसम।
तेरी यादों से कुछ रिश्ता है सावन का
इकबार जरा फ़िर से रुला दे....
Sunday, January 25, 2009
सवाल
दहशत की ज़द जिस्म तक है,
रूहें आजाद हैं हमारी!
ख्वाब बड़ी सख्त-जां हैं हमारे,
औ आँखें बड़ी जीवट वाली,
ख्वाबों को ढलकने नहीं देतीं आसुओं के साथ।"
बात अच्छी है, कह लो! जश्न का मौसम है।
ये सवाल मगर बारहा ख्वाबों के साथ पल रहा है;
यहाँ जिंदगी सियासत से इतनी सस्ती क्यूँ है?
क्या कुचले हुए जिस्मों का रूहों पर कुछ भी असर नहीं होता?
Monday, January 19, 2009
पन्ने......
पंखे की हवा से
या कभी खिड़की खुली रह जाए तो
अक्सर फडफडा के मेरे सामने आ जाते हैं।
आजकल जाने क्यूँ उन्हें देख बड़ी खटका सा होता है........
वक्त मुझसे छूट गया औ' मैं वक्त से।
यादों के पन्नों पर पेपरवेट भी नही रखा जाता।
बड़ी कशमकश में हूँ
सोचता हूँ कुछ पन्ने फाड़ ही डालूं अब
कुछ यादें मेरे जेहन की दीवारों में साँस नही ले पातीं
ज़ज्बातों की जकड़न से
कुछ रिश्तों का दम घुटने लगा है
अब इनके काबिल नहीं रहा मैं.........
किताब से फाड़े हुए पन्ने
अक्सर सिलाई उधेड़ कर ही निकलते हैं मगर.............
Saturday, January 17, 2009
बनाम साकी........
ये बेबसी, ये जिंदगी, ये जज्बात क्या जाने?
खुदा करे, हर जंग तेरी, जीत से हो रु-ब-रु
तूँ साजिशें, ये बाजियाँ, ये शह औ मात क्या जाने?
तेरे दम से सारी रात जगा था मैकदा साकी!
कहीं हम ने रो रो के गुजारी है रात क्या जाने?
तेरी बज्म में जगह पा गए सब अपने भी, पराये भी
तुझे देख कर भी हलक तक रह गई बात क्या जाने?
चल अच्छा ही हुआ शहर में कोई आशना न रहा
बहुत होता था भरम हमीं को देता है कोई हाथ क्या जाने?