Monday, October 26, 2009

ग़ज़ल

ये बेरुखी इस अहद-ए-वफ़ा के नाम क्यूँ मौला
सुबह की धूप पर लिख दी तूने शाम क्यूँ मौला?

तिनका-तिनका उड़ा गयीं सब ख्वाब सारे आशियाँ
अपनी ही हवाएं हो गयीं अंजान क्यूँ मौला?

हँसते-हँसते रो गए तो बात सारी खो गई
कहकहों को सिसकियों का अंजाम क्यूँ मौला?

अब तो आने थे फिजाओं में बहारों के ज़माने
अभी ये गुलशन को पतझड़ इनाम क्यूँ मौला?

Friday, October 16, 2009

चिराग

याद आए हैं तेरी आँखों के वो रौशन चिराग।

देख पल भर में ये आँखें नम सी कुछ पड़ जाएँगी

फ़िर दीयों की रौशनी मद्धम सी कुछ पड़ जायेगी

अब ये लौ की फडफडाहट गा भला क्या पायेगी

उठती झुकती पुतलियों के याद आए हैं वो राग।

जो तेरी गलियों में कटीं शामें मेरी कुछ बात थी

तेरी आंखों से थी रौशन जिंदगी कुछ बात थी

वो पटाखे, रौशनी, वो फुलझडी कुछ बात थी

फ़िर याद आए हैं पटाखों से जलाये थे जो हाथ।

याद आए हैं तेरी आंखों के वो रौशन चिराग।

Sunday, October 11, 2009

गुजरे ज़माने

आहों का असर है न अश्कों के ठिकाने

कहाँ हैं -कहाँ हैं वो गुजरे ज़माने ....

राहों पे जिनकी चली जिंदगी है

बातों पे जिनकी ढली जिंदगी है

अरसा हुआ है कि वो भी नहीं हैं

कि जिनसे निभाया, न आए निभाने।

इक उम्र गुजरी तेरे साथ आते

इक उम्र गुजरी ये रिश्ता निभाते

तुमसे तो जोड़े थे रूहों के नाते

तुम्हें भी तो अब हम पड़े हैं पुराने।

न आजमाओ साथी कि हुए अब ज़माने

कहाँ हैं- कहाँ हैं वो गुजरे ज़माने ।