इक ख्वाब जैसा फिर कोइ आने को है ....
जैसे खिड़कियों पर जाले लगे हों
धुआंधार बारिश से सहेजी हुई कुछ बूंदें
टिप-टिप टपकती हों,
और उनसे भी परे
कुछ झाड़ियां, कुछ अलसाए हुए बुढ़े से मकान
और एक बेतरतीब भीगा हुआ शहर;
सब एक धुन्धली तस्वीर के मानिंद आंखों के आगे पसरे हों।
और ये नादान मासूम आंखें
जाने कौन सी खूबसुरती तलाश लेंगी उनमें।
फिर ख्वाब टूटेगा,
अश्कों से बोझिल आंखें
चंद धुन्धली सी दिखती चीजों में पुराने एहसास तलाश
थक के सो जएँगी फिर।
हमने मासूमियत नहीं खोई
हमारा शहर खो गया है कहीं।
जैसे खिड़कियों पर जाले लगे हों
धुआंधार बारिश से सहेजी हुई कुछ बूंदें
टिप-टिप टपकती हों,
और उनसे भी परे
कुछ झाड़ियां, कुछ अलसाए हुए बुढ़े से मकान
और एक बेतरतीब भीगा हुआ शहर;
सब एक धुन्धली तस्वीर के मानिंद आंखों के आगे पसरे हों।
और ये नादान मासूम आंखें
जाने कौन सी खूबसुरती तलाश लेंगी उनमें।
फिर ख्वाब टूटेगा,
अश्कों से बोझिल आंखें
चंद धुन्धली सी दिखती चीजों में पुराने एहसास तलाश
थक के सो जएँगी फिर।
हमने मासूमियत नहीं खोई
हमारा शहर खो गया है कहीं।
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