Saturday, September 19, 2009

ग़ज़ल

हो के बेक़रार दर्द की इन्तहा पे लिखता है
वो आजकल स्याही में आंसू मिला के लिखता है।

अपनों से गैरों सा बर्ताव तो कोई बात नहीं
वो आजकल रुसवाइयों पे खुदा के लिखता है।

लफ्ज़ उठते हैं अक्सर जब सूख जाती हैं आँखें
और वो कहते हैं गम में मुस्कुरा के लिखता है।

कल तलक महसूस करता था फिज़ाओं में दर्द
अब सूरत-ए-हाल पे गज़लें बना के लिखता है।

Sunday, September 6, 2009

इक ग़ज़ल तेरे नाम.....

हम भी यूँ बैठे-बैठे क्या अजीब बात करते हैं

तुम तो सब भूल गए, हम हैं सब याद करते हैं।

किसी रोज़ किसी लम्हा कहीं छूट गए थे तुम

अब भी उसी लम्हे से ख़ुद को बेकरार करते हैं।

तुम भी तो तुम न रहे ज़माने की भीड़ में

ये हम तेरी राहों पे किसका इंतज़ार करते हैं?

कभी कहा था तुमसे कि एक तुम्ही हो मेरे दोस्त

आज जब तुम ही नहीं क्यूँ सब से ये बात कहते हैं?