Sunday, January 25, 2009

सवाल

"मेरा मुल्क रुकता नहीं,
दहशत की ज़द जिस्म तक है,
रूहें आजाद हैं हमारी!
ख्वाब बड़ी सख्त-जां हैं हमारे,
औ आँखें बड़ी जीवट वाली,
ख्वाबों को ढलकने नहीं देतीं आसुओं के साथ।"
बात अच्छी है, कह लो! जश्न का मौसम है।
ये सवाल मगर बारहा ख्वाबों के साथ पल रहा है;
यहाँ जिंदगी सियासत से इतनी सस्ती क्यूँ है?
क्या कुचले हुए जिस्मों का रूहों पर कुछ भी असर नहीं होता?

Monday, January 19, 2009

पन्ने......

जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने..........
पंखे की हवा से
या कभी खिड़की खुली रह जाए तो
अक्सर फडफडा के मेरे सामने आ जाते हैं।
आजकल जाने क्यूँ उन्हें देख बड़ी खटका सा होता है........
वक्त मुझसे छूट गया औ' मैं वक्त से।
यादों के पन्नों पर पेपरवेट भी नही रखा जाता।
बड़ी कशमकश में हूँ
सोचता हूँ कुछ पन्ने फाड़ ही डालूं अब
कुछ यादें मेरे जेहन की दीवारों में साँस नही ले पातीं
ज़ज्बातों की जकड़न से
कुछ रिश्तों का दम घुटने लगा है
अब इनके काबिल नहीं रहा मैं.........

किताब से फाड़े हुए पन्ने
अक्सर सिलाई उधेड़ कर ही निकलते हैं मगर.............

Saturday, January 17, 2009

बनाम साकी........

ये जुस्तजू, ये गर्दिशें, ये हालात क्या जाने
ये बेबसी, ये जिंदगी, ये जज्बात क्या जाने?

खुदा करे, हर जंग तेरी, जीत से हो रु-ब-रु
तूँ साजिशें, ये बाजियाँ, ये शह औ मात क्या जाने?

तेरे दम से सारी रात जगा था मैकदा साकी!
कहीं हम ने रो रो के गुजारी है रात क्या जाने?

तेरी बज्म में जगह पा गए सब अपने भी, पराये भी
तुझे देख कर भी हलक तक रह गई बात क्या जाने?

चल अच्छा ही हुआ शहर में कोई आशना न रहा
बहुत होता था भरम हमीं को देता है कोई हाथ क्या जाने?