Saturday, April 19, 2014

गज़ल

कुछ वस्ल में बातें न हुईं, कभी हिज़्र के लम्हे न हुए
अजीब इश्क़ था मेरा - यादों को भी किस्से न हुए।

वो इंतेहा-ए-इश्क कि रग-रग में घुल गई इबादत
वो जुनूं-ए-यार कि कभी ख़ुदा के भी सिज्दे न हुए।

बारहा दामन से लगे तो रहे, वो क्या थे, कि न थे?
वो यादें जो तेरी न गयीं, वो ख्वाब जो मेरे न हुए।

और कैसे ख्वाब? तुम्हारी परछायिंओं से बुनते गए
न परछायिंओं को शामें, ख्वाबों के भी सवेरे न हुए।