Sunday, November 20, 2011

चन्द आवारा खयाल

दिल्ली की किसी सर्द सुबह
लोग जगने को हों
धुन्धलका छाने को हो
तेरा हाथ थामे दूर निकाल जाऊँ
सूनी सड्कों पर इक्का-दुक्का लोगों के दर्मियाँ
किसी टी-स्टाल पर जो खुला ही हो
गर्म चाय की प्याली हाथ में ले
भट्टी से निकलते धुएँ से पूछूं
"बता किसका रंग ज्यादा साफ है?"

किसी तपती दोपहर के बाद
जब शाम ढलने को हो
सरस्वती घाट (इलाहाबाद) से किसी बोट पर चलें
संगम के बिल्कुल पास जब सूरज पानी में डूबने को हो
यमुना के पानी पर उन्गली से तेरा नाम लिखूं
किसी रोज समंदर को पता तो चले
नम्कीं किसको कहते हैं...

अपने शहर के चौराहे पर
जहाँ एक तरफ मस्जिद है, दूसरी तरफ मन्दिर
आजकल बडी भीड़ होती है वहाँ,
वहीं थोडी दूर वो गोलगप्पे वाला
अब जरा बूढा हो चला है
वो बचपन वाली बात नहीं रही उसमें
वहीं किसी रोज तुम मिल जाओ अचानक,
देखूँ बात गोलगप्पों में थी या तुम्हारे साथ में..


Wednesday, November 16, 2011

गज़ल

ये चमन, फिजा, दिन-रात, ये शाम-सबेरा कोई नहीं 
आशना हैं सब मगर इस शहर में तेरा कोई नहीं 

इसी रस्ते से हर रात गुजरता है बना वो बन्जारा 
चांद कि खातिर आसमान पर रैन-बसेरा कोई नहीं

जाने मेरी हर महफिल में नाम तेरा आ ही जाता है 
इन नज्मों में कई बरसों से ज़िक्र तो तेरा कोई नहीं









Friday, November 11, 2011

गज़ल

ये बेपनाह आवारगी कभी खल जाती है तो गज़ल कह्ता हूँ
शौक ही शौक में जान पे बन आती  है तो  गज़ल  कह्ता हूँ.

वो जिसे होश कहते हैं, मशरूफ जिन्दगी की बेहोशियाँ हैं
फुर्सत जो कभी  मैकदे में लाती है तो गज़ल कह्ता हूँ .

वो जो मैं था, हो के खाक बिखर गया था तेरे शहर में
हवा ये तुझसे  आखिरी रब्त भी उड़ाती है तो गज़ल कह्ता हूँ

दर्द एक ख्याल है, 'शायरी' कोई शौक का सामां तुझको
तूं न समझेगा, आह कोई दब जाती है तो गज़ल कह्ता हूँ.






Friday, November 4, 2011

गज़ल

पूछ्ता है कि मेरी राहों में क्यूं  मैकदा ही नहीं होता 
साकी समझता नहीं अब हमें  नशा भी नहीं होता.

होश फख्ता हैं जिन्दगी से ही कुछ इस कदर
वो होश गुम होने का अब वाकया भी नहीं होता 

किसी अपने से शौक से दो बात  कर लें कभी 
आजकल  फुर्सतों का इतना दायरा भी नहीं होता. 

हमने कुछ शौक से पाली हैं ये खामोशियाँ 
यूं कह जाने से दर्द कुछ हल्का भी नहीं होता.

हमसे अब और हुनर की उम्मीद न पाल 'अक्स'
हाल-ए-दिल और लफ्ज़ों मे तर्जुमां भी नहीं होता