Monday, February 28, 2011

गीत

सुन मन्द-मन्द उठता है राग 
हकीकत मे जैसे घुल जाए ख्वाब
अब किस जोगी का तोडे विराग 
तेरा शृंगार!

कितना अहं, कितनी है साख 
हैं मौन छंद, कविता आवाक
किसको न तेज से कर जाए राख 
तेरा शृंगार!

जो खुले केश तो उठे बयार
जो उठें पलकें छा जाए बहार
जाने किसके अब जगाए भाग 
तेरा शृंगार!   


Monday, February 21, 2011

गज़ल


चंद  लम्हों  को  यूं  खो  तो गए हैं हम 
कौन कह्ता है इस शहर में नए हैं हम.


छिले हुए घुटने और लिपटी हुई मिट्टी
मुद्दत से गर्दिशों के लाडले हैं हम 

कितनी थकी हारी शामें भी याद  हैं 
कितनी सुबहों को फिर चल पडे हैं हम 

हमें मिट जाने का खौफ न दो दुनिया 
खाक की सोह्बत में तो पले हैं हम 

अपनी तह्जीब कि नजरें झुका रक्खी हरदम  
यूं  जालीम  तुझसे  कब  डरे  हैं हम