Wednesday, July 3, 2013

गज़ल

घुलीं जो सांस में, सांसों की वो कीमतें लगा गयीं
फिर हर्फ़-हर्फ़ उदासियां पूरी गज़ल पे छा गयीं।

हर बात सुनी सी है मगर, बेनाम सी आवाज़ है
किस गुमां में हमपर फ़िज़ा ये तोह्मतें लगा गई।

क्या खूब हमने जाना तुझे-ऐ इश्क़, तेरी जुस्तजू
संभले थे तो गिरा गई, गिरे तो फिर से उठा गई।

बस एक सूरत-ए-हाल पे तूं मत हमें बर्बाद कह
थीं बर्बादियां कि फिर हमें मुरीद खुद का बना गयीं।





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