Monday, February 21, 2011

गज़ल


चंद  लम्हों  को  यूं  खो  तो गए हैं हम 
कौन कह्ता है इस शहर में नए हैं हम.


छिले हुए घुटने और लिपटी हुई मिट्टी
मुद्दत से गर्दिशों के लाडले हैं हम 

कितनी थकी हारी शामें भी याद  हैं 
कितनी सुबहों को फिर चल पडे हैं हम 

हमें मिट जाने का खौफ न दो दुनिया 
खाक की सोह्बत में तो पले हैं हम 

अपनी तह्जीब कि नजरें झुका रक्खी हरदम  
यूं  जालीम  तुझसे  कब  डरे  हैं हम 






4 comments:

Letters to Soul... said...

हमें मिट जाने का खौफ न दो दुनिया
खाक की सोह्बत में तो पले हैं हम
waah muktesh ji..mast hai..:)

Phoenix said...

Badhiya likha hai aapne.... Inspiring as well

orchids said...

syah raat nam nahi leti hai dlne ka ,yahi to waqt hai suraj tere niklne ka

orchids said...

syah raat nam nahi leti hai dhlne ka,yahi to waqt hai suraj tere niklne ka