Thursday, January 20, 2011

ग़ज़ल

अपने ही घर में चीजें अनजानी सी पड़ गयी हैं
पुराना मकान है अब दरारें सी पड़ गयी हैं

अब और आह का सबब क्या बताएं हम
बात अब तुझको भी बतानी सी पड़ गयी है

रिश्तों पर जमी धूल देखी तो याद आया
कुछ रोज़ से कुछ चीजें पुरानी सी पड़ गयी हैं.

आजकल करीबी लोग भी साफ़ नहीं दिखते
खरोंच आई है, चश्मे पे निशानी सी पड़ गयी है.

3 comments:

Rakesh Jain said...

बहुत खूब...

Letters to Soul... said...

mast hai :)

Letters to Soul... said...
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