Monday, February 20, 2012

गज़ल

जो कह ही चुके हैं सब बातें तमाम लिखते तो क्या लिखते
खामखा राह के पत्थर को मुकाम लिखते तो क्या लिखते।

यूं ठीक कि किसी रोज तो तेरे हाथ रुस्वा भी हुए हम
तूं फिर भी प्यादा है, तुझको निजाम लिखते तो क्या लिखते।

कल देख तो आए थे सियासत भी उसकी नुमायिश भी मगर
तोहमतें तो थीं हम पर भी  तमाम लिखते तो क्या लिखते।


यूं ठीक कहते हो गज़ल का एहसास भी छिन गया हमसे
दोपहर की छांव को मगर शाम लिखते तो क्या लिखते।

गुरुर हमको भी कम नहीं है अपनी अहमियत का 'अक्स'
फिर भी मजबूरियों को एह्तराम लिखते तो क्या लिखते।


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