Monday, June 6, 2011

गज़ल

आह से उपजेगी आग तो तख्त-ओ-ताज भी जला करेंगे अब 
सांस थामो  कि  हुक्मरानों के  अन्दाज  भी  जला  करेंगे अब. 

आवाम की फितरत को इस कदर शर्मिंदा भी न कर जालिम
इन्ही   दियों  से  तूफानों  के मिजाज़  भी  जला  करेंगे  अब.

रूहों की  कीमत पर  आसमानों  के सौदे न कर कह देता हूँ
कुछ पंख भी कुतरे जाएंगे, कुछ परवाज़ भी  जला करेंगे अब.

तेरे इशारों पे खौफ खाने, बदल जाने वाले मौसम भी गए 
इन  बादलों  की  गरज़  से  तेरे  साज  भी जला करेंगे अब.





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