Wednesday, June 1, 2011

गज़ल

आजकल रु-ब-रु बारहा ये सवाल आता है 
ये गुमनामियों से हमें कौन बेज़ा निकाल आता है.

हर बार कसम देकर हालात कह देता हूँ उससे 
वो हर बार सर-ए-बजार मेरे चर्चे उछाल आता है.

कल महफिल से मेरा जाना भी अब याद नहीं 
ये साफ मुकर जाना भी उसको कमाल आता है.

रोज किसी अपने के गम में पी जाता हूँ 
रोज कोई अजनबी रस्ते से सम्भाल लाता है 

आजकल बुजदिली का ये आलम है 'अक्स'
दिल को सहम-सहम कर उसका भी ख्याल आता है.  


2 comments:

Manish Kumar said...

अरे बन्धु, इतनी महान रचनाएँ कैसे लिख लेते हैं? हर बार लगता है कि आपकी इस "नयी" रचना की प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं...... ग़ज़ब......... बहुत बहुत धन्यवाद, इतनी सुन्दर रचना पढ़ने का मौका देने के लिए :)

amrendra said...

bahut aacha collection hai