अपने ही घर में चीजें अनजानी सी पड़ गयी हैं
पुराना मकान है अब दरारें सी पड़ गयी हैं
अब और आह का सबब क्या बताएं हम
बात अब तुझको भी बतानी सी पड़ गयी है
रिश्तों पर जमी धूल देखी तो याद आया
कुछ रोज़ से कुछ चीजें पुरानी सी पड़ गयी हैं.
आजकल करीबी लोग भी साफ़ नहीं दिखते
खरोंच आई है, चश्मे पे निशानी सी पड़ गयी है.
Thursday, January 20, 2011
Saturday, January 15, 2011
ग़ज़ल
कहाँ हैं अब, वो तुम, वो मैं, वो शाम वो किस्से
किन्हीं वजहों से सारे शहर में बदनाम वो किस्से
वो नुक्कड़ पे जमने वाली रोज़ की महफ़िलें
आवारगी का, गर्दिशों का अंजाम वो किस्से.
वो जाड़े की सुबह, वो अलाव, वो हिंदी अख़बार
चाय पे सियासत के चर्चों के नाम वो किस्से.
जिंदगी को देखने के नज़रिए ही बदल गए
न वो फुर्सत, न शुकूं, न सर-ए-आम वो किस्से.
किन्हीं वजहों से सारे शहर में बदनाम वो किस्से
वो नुक्कड़ पे जमने वाली रोज़ की महफ़िलें
आवारगी का, गर्दिशों का अंजाम वो किस्से.
वो जाड़े की सुबह, वो अलाव, वो हिंदी अख़बार
चाय पे सियासत के चर्चों के नाम वो किस्से.
जिंदगी को देखने के नज़रिए ही बदल गए
न वो फुर्सत, न शुकूं, न सर-ए-आम वो किस्से.
Sunday, January 9, 2011
ग़ज़ल
बना के हसीं दर्द-ए-दिल नज्मों में उतारे थे कभी
इतनी खुशरंग थीं ये दिल कि दरारें भी कभी.
किसकी साजिश है कि पसरे हैं बेरूह अँधेरे
अपने सजदों में असर था कि उजाले थे कभी.
इतना नाआशना होकर भी न गुज़रो लोगों
इसी शहर में चर्चे थे हमारे भी कभी.
ठंडी राख को हकीकत समझ बैठे हो
जानोगे 'गर देखोगे जलने के नज़ारे भी कभी.
इतनी खुशरंग थीं ये दिल कि दरारें भी कभी.
किसकी साजिश है कि पसरे हैं बेरूह अँधेरे
अपने सजदों में असर था कि उजाले थे कभी.
इतना नाआशना होकर भी न गुज़रो लोगों
इसी शहर में चर्चे थे हमारे भी कभी.
ठंडी राख को हकीकत समझ बैठे हो
जानोगे 'गर देखोगे जलने के नज़ारे भी कभी.
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