Saturday, September 19, 2009

ग़ज़ल

हो के बेक़रार दर्द की इन्तहा पे लिखता है
वो आजकल स्याही में आंसू मिला के लिखता है।

अपनों से गैरों सा बर्ताव तो कोई बात नहीं
वो आजकल रुसवाइयों पे खुदा के लिखता है।

लफ्ज़ उठते हैं अक्सर जब सूख जाती हैं आँखें
और वो कहते हैं गम में मुस्कुरा के लिखता है।

कल तलक महसूस करता था फिज़ाओं में दर्द
अब सूरत-ए-हाल पे गज़लें बना के लिखता है।

No comments: