हो के बेक़रार दर्द की इन्तहा पे लिखता है
वो आजकल स्याही में आंसू मिला के लिखता है।
अपनों से गैरों सा बर्ताव तो कोई बात नहीं
वो आजकल रुसवाइयों पे खुदा के लिखता है।
लफ्ज़ उठते हैं अक्सर जब सूख जाती हैं आँखें
और वो कहते हैं गम में मुस्कुरा के लिखता है।
कल तलक महसूस करता था फिज़ाओं में दर्द
अब सूरत-ए-हाल पे गज़लें बना के लिखता है।
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