"मेरा मुल्क रुकता नहीं,
दहशत की ज़द जिस्म तक है,
रूहें आजाद हैं हमारी!
ख्वाब बड़ी सख्त-जां हैं हमारे,
औ आँखें बड़ी जीवट वाली,
ख्वाबों को ढलकने नहीं देतीं आसुओं के साथ।"
बात अच्छी है, कह लो! जश्न का मौसम है।
ये सवाल मगर बारहा ख्वाबों के साथ पल रहा है;
यहाँ जिंदगी सियासत से इतनी सस्ती क्यूँ है?
क्या कुचले हुए जिस्मों का रूहों पर कुछ भी असर नहीं होता?
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