Saturday, December 6, 2008

गज़लें

कोई भूली हुई बात, कहीं जमी हुई पीर हैं हम
ख्वाबों के पुलिंदे हैं दर्द की तासीर हैं हम

यूँ कैसे कह दें कि इतने नाकाबिल भी थे
आजकल ख़ुद अपनी धुंधली सी तस्वीर हैं हम

अब आंसुओं में साथ देने आओगे साथी?
कैसे मुस्कुरा के कहते थे तुम्हें भी अजीज हैं हम

यूँ कैसे मिटा दिया जहन--दिल से नाम मेरा?
गोया रेत पर खिंची कोई लकीर हैं हम

कई बार कहा कि ग़मों पे जब्त कर ले अब तो
जिंदगी! सच तेरी हसरतों से आजीज हैं हम








तेरा नाम, तेरी बातें, तेरे किस्से कुछ याद नहीं
हो गए हैं सारे चेहरे एक से, कुछ याद नहीं

रुसवाईयों की इस कदर आदत सी कब ये पड़ गयी?
इक दौर में हम भी कभी खुद्दार थे, कुछ याद नहीं

जख्म गिनते खो गया दर्द का एहसास तक
इस दिल पे किस किस के खंजर चुभे, कुछ याद नहीं

आजकल चौराहों पे हो गई है कितनी रौशनी!
अब भी मेरे घर में ठहरे हैं अंधेरे, कुछ याद नहीं

दोस्तों के घर चला तो अजनबी से लोग मिले
शायद मुझे अपने शहर के रास्ते कुछ याद नहीं।

एहसास किसके, बात किसकी, औ' उभरती शक्ल किसकी?
मेरी लिखावट में लिखीं गज़लें किसने कुछ याद नहीं।

3 comments:

Ashutosh Kumar Mishra said...

sahi hai.....lage rahiye

amit said...

bahut si baaten aati hain jahen main........
kya kya likhun.....
bas guzarish hai ki aap apna ye andaaz na badaliyega kyunki society aisa hira ek sadi me pata hai..

Rakesh Jain said...

बहुत खूब...शानदार..