Friday, January 3, 2014

नज़्म

सोच के एक सिरे को पकड़ा,
सोचा इक ख्याल बुनूं -
जरा हल्के रंग का,
फिर जरा गाढ़े रंग का,
और फिर किसी और रंग का,
ऐसे दस बारह रंग-बिरंगे ख्याल जमा हों
तो उन्हें जोड़  इक नज़्म बनाउं -
कुछ तुम्हारी कैफ़ियत की मानिंद।

मगर इन सूती सोचों में तो गांठें पड़ती हैं,
ज़हन बेतरतीब ख्यालों में उलझ जाता है,
इन्हें जोडूं तो तो शायद खादी की कोई नज़्म बने -
हक़ीकत की तरह खुरदरी, बेरंग।

तुम यूं करो न!
जरा हाथ फेर दो इनपर
सब सोच के धागे रेशमी हो जाएँ,
सब ख्याल रंग-बिरंगे -
रेशम में सुना है गांठें नहीं पड़तीं,
औ' मेरी कारिगरी में जो कमी रहे
तुम्हारे रंगों में छुप जाए शायद!

3 comments:

highestvikash said...

nice one sir......

VM COMPUTER SYSTEM said...

वाह वाह बहुत खूब ख्याल है बधाई

VM COMPUTER SYSTEM said...

वाह वाह बहुत खूब ख्याल है बधाई