Tuesday, April 17, 2012

गज़ल

ये मुकद्दर, ये हालात, यूं तंगहाल कहाँ जाएंगे 
न सिम्त ठिकाने, न रस्ते ही ख्याल, कहाँ जाएंगे.

कहो तो तुम्हारे दर पे माथा टेक आएँ हम भी
इस बार मेरे मौला जरा सम्भाल, कहाँ जाएंगे.

पिछ्ले ही बरस चौखट तक चला आया था पानी
क्या जाने बरसात में इस साल कहाँ जाएंगे.

इस फिक्रमंदी में वो अन्दाज-ए-बयां लाऊँ कैसे
चांद के ख्वाब से रोटी के सवाल कहाँ जाएंगे?

इस कशमकश से तूं अभी थका भी तो नहीं 'अक्स'
जब तलक है अपनी उम्र उठ्ने दे बवाल कहाँ जाएंगे.






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