Wednesday, October 8, 2014

ग़ज़ल

नुक्कड़-नुक्कड़, जलसे-जलसे यूं ही आते-जाते अक्सर
जाने कब कैसे आती हैं, किन बातों से वो बातें अक्सर।

सर्दी की सुबहों पर जब-जब फूंकों से बादल बुनता था
दिन ढ़लता था, फिर होती थीं आंखों से बरसातें अक्सर।

सोचा था मुद्दत बात मिलोगे, हैरां होगे, हाल तो लोगे
फिर सोचा कब पूरी होती हैं असल में सोची बातें अक्सर।

इन सूती धागों से अब सब जीवन की कडियाँ जोड़ तो लें
पर याद आती हैं ख्वाबों में रेशम की मुलाकातें अक्सर।

कुछ धुंधले अल्फाज़ कभी तो याद तुम्हें भी आयेंगे
बीते पर जानी जाती हैं सब शायर की सौगातें अक्सर। 




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